अक्सर धर्म/मज़हब को लेकर जब मित्रों, रिश्तेदारों, विभिन्न संवाद मंचों के सदस्यों से वाद-विवाद होता तो मैंने अक्सर देखा हैं की समाज सुधार आन्दोलन वाली बात को हिन्दू धर्म की एक विशिष्टता के रूप में देखा जाता हैं। आदि शंकराचार्य, रामानुजाचार्य, स्वामी दयानंद सरस्वती, स्वामी विवेकानंद, रामकृष्ण परमहंस , राजा राम मोहन रॉय इत्यादि का नाम लिया जाता हैं और कहा जाता हैं की जहाँ अन्य धर्मो में संशोधन/सुधार का कोई मार्ग नहीं हैं, वहीँ हिन्दू धर्म में समाज सुधार के आन्दोलन चलाये गए हैं और यह हिन्दू धर्म की उदारता, सहिष्णुता और उसके लचीले होने का प्रमाण हैं।
इस विषय पर, बिना किसी द्वेष/पूर्वाग्रह के बाद गहन से सोचने पर मुझे लगता है की यह कथन बिना किसी ठोस प्रमाण के आज तक काफी हिन्दुत्ववादियों में काफी लोकप्रिय हैं और यह बात समय समय पर हिन्दू धर्म को, अन्य धर्मों से, श्रेष्ठ साबित करने के लिए दोहराई जाती हैं। लेकिन मैं इससे पूर्ण रूप से असहमत हूँ कि इस तरह की सोच किसी ठोस आधार पर खड़ी हुई हैं।
अगर हिन्दू समाज में सुधार के इतने आन्दोलन चले तो क्यों नहीं जाति व्यवस्था ख़त्म हुई? क्यों नहीं दलितों और शूद्रों का शोषण ख़त्म हुआ? क्यों नहीं सवर्णों का प्रभुत्व ख़त्म हुआ? क्यों नहीं हिन्दू महिला को उनके उचित अधिकार मिले? क्यों नहीं धर्म को समाज सेवा के लिए लगाया गया ना कि की समाज के शोषण के लिए? अगर हम बिना किसी पूर्वाग्रह और द्वेष के देखे तो इन तथाकथित समाज सुधारकों का बृहद हिन्दू समाज में कोई प्रभाव नहीं पड़ा। हाँ कुछ शिष्य और कुछ अलग पंथ बन गए पर हिन्दू बहुसंख्यक समाज में इन आन्दोलनो प्रभाव बेहद सिमित रहा, इतना सिमित की अलग अलग छोटे छोटे पंथ बन गए जो समय के चलते कहीं खो गए। आदि शंकराचार्य को शायद समाज सुधारकों की पंक्ति में न खड़ा किया जाए, क्योंकि उनके पूरे जीवन का लक्ष्य था बौद्ध मत के बढ़ते प्रभाव को रोकना और ब्राह्मणवादी व्यवस्था को फिर से भारतीय जनमानस की चेतना में स्थापित करना। दयानद सरस्वती, रामानुजाचार्य, चैतन्य महाप्रभु इत्यादि भी अपनी तरफ से कोशिश की लेकिन वह भी कोई प्रभाव नहीं छोड़ पाए। एक लेख पढ़ रहा था, स्वामी विवेकानंद की जीवनी पर और यह वाकया उस समय का हैं जब वह अपने गुरु रामकृष्ण परमहंस से उन्होंने शायद किसी अति-सुरक्षित पंथ की गतिविधियों के बारे में प्रश्न किया तो रामकृष्ण परमहंस ने विवेकानंद से कहा की जैसे घर के भीतर जाने के एक से अधिक द्वार हैं वैसे ईश्वर तक पहुचने के उतने ही रास्ते हैं, भंगी घर के पिछले दरवाज़े से आता हैं पर तुझे वहां से प्रवेश करने की ज़रुरत नहीं। ऐसा भीषण, दलित/शूद्र विरोधी मानसिकता के लोग समाज में सकारात्मक परिवर्तन कैसे ला सकते हैं और यही रामकृष्ण परमहंस को समाज सुधारक का दर्ज दिया जाता हैं।आजकल के पूंजीवादी युग में तो सुधारकों की बाढ़ से आ रखी हैं जिनके नाम मैं नहीं गिनना चाहता।
हिन्दू धर्म में कोई सामाजिक आन्दोलन इसीलिए नहीं सफल हो सकता क्योंकि जातिवादिता, पितृसत्ता, सामंतिवाद में हिन्दू धर्म को जकड़ा हुआ हैं। हिन्दू समाज सुधार अन्दोलनो ने उसी बासी वृक्ष से ताज़े फल पैदा होने की उम्मीद की जो अब तक केवल सड़े-गले फल ही दे रहा था। जब तक समाज सुधार का आन्दोलन हिन्दू धर्म के दायरे से बाहर जा कर उसपर प्रहार नहीं करता, यह सामाजिक व्यवस्था बदलने वाली नहीं हैं। चाहे रूस की क्रान्ति जो, जिसमे रूसी बुर्जुवा पर निर्मम प्रहार कर उसे धूल -धूसरित किया वहां पर वर्ग रहित समाज को स्थापित किया। अब्राहम लिंकन ने दास-प्रथा के विरोध में अपने देश को गृह-युद्ध की विभीषिका में झोंका। कुछ इसी तरह का सामजिक आन्दोलन भारत में होगा और वह हिन्दू धर्म के दायरे में नहीं लड़ा जायेगा बल्कि उसके खिलाफ, उसकी नींव पर कुठाराघात करने पर ही वह हो पायेगा। हिन्दू धर्म के दायरे में रहकर उसपर जो भी वार किया जाएगा, वह बिलकुल भी प्रभावी नहीं होगा, जैसा की हमारे यहाँ पर कम्युनिस्ट पार्टियां बुर्जुवा लोकतंत्र में भाग लेकर जैसा वह सर्वहारा क्रान्ति ला पाने में असफल हैं, ठीक उसी तरह की सामाजिक क्रान्ति भी दूर की कौड़ी हैं जब तक वह धर्म के दायरे में रह कर करी जाएगी।
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